तुम्हारा प्रेम मेरी ‘शक्ति,
तुम्हारी कमी मेरी ‘कमजोरी,
इसलिये
अप्रभावित रहना चाहता हू़ं
इस क्रूर समाज में
इसकी निर्मम मर्यादाओं से
और
प्राप्त करना चाहता हूं
वो शक्ति
वो दिव्यता
जब बन्द कर अपनी आखें
मुक्त कर सकूं
अपनी आत्मा को
पल भर में
इस शरीर से
समाज की जंजीरो से और फ़िर
विचर सकूं
तेरे प्रेम के साथ
उसके मीठे एहसास के साथ
पूरे ब्रह्माडं में।
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हाँ, अब सध रहे हो । प्रेम-दिवस पर अच्छी प्रस्तुति ।
टाइटिल क्यों नहीं लिखा ?
उसके मीठे एहसास के साथ
पूरे ब्रह्माडं में।nice
नयी बात है …..अच्छा है …..कीप इट अप …..
इसलिये
अप्रभावित रहना चाहता हू़ं
इस क्रूर समाज में
इसकी निर्मम मर्यादाओं से
yah baat nayi hai.
upar chhut gaya hai.
bahut sundar rachbna
aapka blog aur kavita achche lage....... likhte rahiye........
boltikalam.blogspot.com
अच्छा लिखा है.