तुम्हारा प्रेम

Sunday 14 February, 2010 | comments (7)

तुम्हारा प्रेम मेरी ‘शक्ति,
तुम्हारी कमी मेरी ‘कमजोरी,

इसलिये
अप्रभावित रहना चाहता हू़ं
इस क्रूर समाज में
इसकी निर्मम मर्यादाओं से
और
प्राप्त करना चाहता हूं
वो शक्ति
वो दिव्यता
जब बन्द कर अपनी आखें
मुक्त कर सकूं
अपनी आत्मा को
पल भर में
इस शरीर से
समाज की जंजीरो से और फ़िर
विचर सकूं
तेरे प्रेम के साथ
उसके मीठे एहसास के साथ
पूरे ब्रह्माडं में।
Share this article :

+ comments + 7 comments

14 February 2010 at 8:05 pm

हाँ, अब सध रहे हो । प्रेम-दिवस पर अच्छी प्रस्तुति ।
टाइटिल क्यों नहीं लिखा ?

14 February 2010 at 9:21 pm

उसके मीठे एहसास के साथ
पूरे ब्रह्माडं में।nice

15 February 2010 at 2:10 am

नयी बात है …..अच्छा है …..कीप इट अप …..

15 February 2010 at 2:11 am

इसलिये
अप्रभावित रहना चाहता हू़ं
इस क्रूर समाज में
इसकी निर्मम मर्यादाओं से
yah baat nayi hai.
upar chhut gaya hai.

15 February 2010 at 8:44 am

bahut sundar rachbna

15 February 2010 at 8:49 am

aapka blog aur kavita achche lage....... likhte rahiye........


boltikalam.blogspot.com

अच्छा लिखा है.

Post a Comment
 
Support : Creating Website | Johny Template | Mas Template
Copyright © 2011. रम्य-रचना - All Rights Reserved
Template Created by Creating Website Published by Mas Template
Proudly powered by Blogger