Sunday 23 November, 2008 | comments (1)

जब अंधेरें में
उन राहों से गुजरता हूँ मैं
बिना देखे ही जन जाता हूँ
उन ढोकरो और गड्डों के बारे में
जिनमे उलझ कर गिरा था मैं
चोटें भी खाई थी मैंने
उस कुत्ते को भी पहचानता हूँ मैं
जिसने दौड़ाया था काटने को
वह साड़ भी याद है
जिसने अपनी सिंघ पर उठा कर फेकां मुझे
लेकिन फिर भी
जाता हूँ
उसी रास्ते हर रोज
कि
शायद तुम ...!
प्रशांत
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23 November 2008 at 8:54 pm

"उस कुत्ते को भी पहचानता हूँ मैं
जिसने दौड़ाया था काटने को"

कहीं ऐसा न हो कि कुत्ता भी पहचानने लगा हो तुम्हें.

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