शायद तुम

Monday 22 December, 2008 | comments (5)

शायद तुम ही हो
जो चुपके से आते हो ,
हर बार जब भी मैं
सोचता हूँ कहाँ हूँ मैं
धीरे से मेरे कानो में कुछ कह कर
फ़िर चले जाते हो
वहां जहाँ शिवाय कल्पना के
वास्तविकता में नहीं पहुचं सकता मैं
लेकिन कल्पना में ही अपनी
बहुत सी अभीप्साओं की पूर्ति करता हूँ
तुम्हारे हर एक पहलू को
बड़ी नजाकत से देखतां हूँ
फ़िर भी नही समझ पाटा
की कौन हो तुम
मुझसे चिर परिचित
या अनजान
जो भी हो
बस तेरा रहना , होना ही काफी है
इस अज्ञेय के लिए ...!

(प्रशांत)
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+ comments + 5 comments

23 December 2008 at 7:58 pm

१."बस तेरा होना ही काफी है ".
एक बार इस बारे में सोचा जा सकता है की "तेरा" के स्थान पर "तुम्हारा" होता तो कैसा होता !
२. "इस अज्ञेय के लिए"
किस अज्ञेय के लिए ?

1 January 2009 at 5:38 pm

सुन्दर रचना.

साहित्‍य कल्‍पना की ही चीज है जो वास्‍तविकता की तलाश मे भटकता हैं प्रयास सराहनीय है

19 April 2009 at 10:26 pm

एक सशक्त रचना ....!!

19 June 2009 at 3:45 pm

अच्छी अभिव्यक्ति व सुन्दर रचना...

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